Sunday, October 4, 2009

जलमग्न नगर - अभय शर्मा

जलमग्न नगर!

जहां भी देखा जिधर भी देखा
जल ही जल था भरा हुआ
इधर भी जल और उधर भी जल
थल था या जल का शोला था

पीकर प्यासा प्यास बुझाये
यह वह अमृत जल ना था
कभी जीवन देने वाला यह जल
था चला ले चला जीवन के पल

नदी की सीमाऒ को चीर
दानव था अब बन गया नीर
नही बख्शा बच्चॊं बूढॊं कॊ
जल निगल गया बन गया तीर

है आस टूट गई अब सबकी
अब सांस रूठ गई है कबकी
कोई बहा जा रहा किसे खबर
था शॊकातुर जलमग्न नगर

यह कैसी प्रभु तेरी लीला
जल का क्यॊ ऎसा रूप रचा
मानवता से क्या बैर तेरा
क्यॊं जल ने काल का रूप धरा

जीवन में जल की महिमा थी
क्यॊ जल जी का जंजाल बना
कल तक जिसकॊ हमने पूजा
क्यॊं आज हमॆ वह ग्रास गया

हे बंधु मेरे हे सखा मेरे
जाऒ उस मां से मिल आऒ
खॊ गया लाल जिनका जल में
कर गया हमारे नयन सजल

आंखॊ में भर लो सारा जल
यह थल न हो फिर से जल-जल
शंकर चल जटा बांध ले चल
विष की गागर ना बने ये जल

मेरे ईश्वर मेरे भगवन
पूजेगा तुमकॊ मानव तन
कुछ दया करॊ कहता है मन
जल पीडा़ का अब करॊ हरण

अभय शर्मा, भारत, 5 सितबंर 2008, 00.05 घंटे

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