Tuesday, September 15, 2009

दुनिया नये इंसानो की

चिराग जलते नही ये दाग भी मिटते नही
दिमाग मिलते नही ये जख्म है भरते नही
खिजां की फ्स्ल है गुलशन भी अब तो खिलते नही
यह कैसी नस्ल है हमदम भी अब तो मिलते नही

जनाबे-वाला अमित साहब
आदाब, इस नाचीज़ का सलाम कुबूल फ़र्मायें, एक इंतहा से इस बात का इंतजार था कि जनाब कि खिदमत में कुछ अर्ज कर पाता, गोया कुछ लिख पाना मेरे नसीब में कहां, एक मुद्दत से अमन के लिये कुछ कह पाने की हसरत थी, इन अल्फ़ाज़ों से यक-ब-यक बयां तो नही होती फिर भी पेश करने की जुर्रत कर रहा हूं, -

वो शमा, शमां के जलते चिरागों में आज जागी है
कि अब कुछ और कहने को कहां कुछ बाकी है

है गुजारिश कि अमन की मन में बात जागी है
किसे कहें कि क्या कहें कि अब तो रात आधी है
एटम बम के हम नही कायल गो कि ये बर्बादी है
कोई कह दे अभय कि हां बस इक यही आज़ादी है

नही महसूस होती हो जहां, सांसे कहीं मुनासिब ही
नही महफ़ूज होती है वहां , बस्ती नई बसानी भी
मिरी दुनिया तिरी दुनिया की ही तो जानिब सी
लगाते आग हो पहले जहां, फिर मांगते हो पानी भी ।

चलो चलकर बसाते है कोई दुनिया नये इंसानो की ।

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